समाज/संस्कृति

रमा एकादशी व्रत क्यों है खास?

1 नवम्बर,2021 (सोमवार)

हिंदू धर्म में हर एक एकादशी का अपने आप में एक अलग महत्व होता है। भगवान श्री विष्णु को समर्पित वर्ष में 24 एकादशी आती हैं। जिनमें से एक रमा एकादशी भी है जो कि कार्तिक मास की पहली एकादशी और चतुर्मास की अंतिम एकादशी है।

रमा एकादशी के दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ धन, ऐश्वर्य और वैभव की देवी लक्ष्मी की भी पूजा की जाती है। क्योंकि इस दिन देवी लक्ष्मी यानी कि रमा देवी की भी पूजा होती है इसीलिए यह एकादशी रमा एकादशी कहलाती है।

रमा एकादशी का शुभ मुहूर्त :-

01 नवंबर, 2021 सोमवार
रमा एकादशी पारणा मुहूर्त – 2, नवंबर को।
सुबह 06:33:26 से 08:45:52 तक।
अवधि – 2 घंटे 12 मिनट।

रमा एकादशी का व्रत देवी लक्ष्मी को भी समर्पित होता है इसलिए दिवाली से पहले देवी लक्ष्मी की पूजा करने के लिए रमा एकादशी एक बहुत ही शुभ दिन है। कार्तिक मास भगवान विष्णु को अति प्रिय है इसीलिए कार्तिक मास में आने वाली इस एकादशी का महत्व बढ़ जाता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, जो लोग रमा एकादशी का व्रत रखते हैं और भगवान विष्णु के साथ माता लक्ष्मी की पूजा करते हैं, उनके घर में सुख, समृद्धि और धन की वृद्धि होती है और भगवान विष्णु की कृपा से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इस एकादशी का सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान उपवास करना होता है। इस व्रत को, एकादशी से 1 दिन पहले के सूर्यास्त से लेकर एकादशी के अगले दिन के सूर्योदय तक रखना होता है। इस दिन, भक्त भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की पूजा आरती के साथ भगवद गीता के श्लोकों का पाठ करते हुए जागरण करते हैं।

शास्त्रों के अनुसार जो रमा एकादशी का व्रत रखता है उसे ब्रह्महत्या जैसे पापों से मुक्ति मिलती है और उसे जीवन भर सुख और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करना 100 राजसूय यज्ञ या 1000 अश्वमेध यज्ञ करने के बराबर है। अब हम आगे ये जानेंगे कि रमा एकादशी की पूजा कैसे की जाती है।

रमा एकादशी की पूजा विधि

रमा एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ कपड़े पहनें। इसके बाद भगवान विष्णु की पूजा और संकल्प करें। अगर आपके घर में भगवान शालिग्राम हैं तो उनकी विधि- विधान से पूजा-अर्चना करें। इसके बाद गंगाजल, चंदन, धूप, दीप, फूल आदि अर्पित करें। आज भगवान सत्यनारायण की कथा पढ़ना और सुनना चाहिए। इसके अलावा विष्णु सहस्त्रनाम और विष्णु सतनाम स्त्रोत का पाठ भी कर सकते हैं। पाठ के बाद भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की आरती उतारें और प्रसाद का भोग लगाकर परिवार के सदस्यों में बांटे। व्रत के अगले दिन अर्थात द्वादशी के दिन पूजन के बाद जरुरतमंद व्यक्ति या ब्राह्मण को भोजन और दान-दक्षिणा देकर, अंत में भोजन करके व्रत खोलना चाहिए। अब आगे हम पढ़ेंगे रमा एकादशी की व्रत कथा।

रमा एकादशी की व्रत कथा

शास्त्रों के अनुसार रमा एकादशी की व्रत कथा सुननें मात्र से ही व्यक्ति को 1000 अश्वमेध यज्ञ के समान पुण्य मिलता है।

प्राचीनकाल की बात है एक राज्य में मुचुकुंद नामक राजा था। वह एक धर्मात्मा और विष्णु भक्त था। उनकी इंद्रदेव, यमराज, विभीषण आदी के साथ अच्छी मित्रता थी। उनकी कन्या चंद्रभागा का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन संग हुआ था। एक समय जब शोभन ससुराल आया, उन्हीं दिनों जल्दी ही रमा एकादशी आने वाली थी।
और दशमी तिथी को ही राजा ने यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। यह सुनके शोभन चिंता में पड़ गए और अपनी पत्नी से कहने लगे कि वह किसी प्रकार भी भूख को सहन नहीं कर पाते हैं। वह उन्हें ऐसा कुछ उपाय बताएं जिससे उनके प्राण बच सके।

चंद्रभागा ने उत्तर देते हुए कहा की उनके पिता के राज्य में एकादशी के दिन पशु तक जल ग्रहण नहीं करते, तो मनुष्यों का क्या ही कहना। फिर उसने यह उपाय सुझाया कि यदि शोभन को भोजन करना ही है तो वह किसी दूसरे स्थान पर जाकर ऐसा कर सकते हैं नहीं तो राजा मुचुकुंद के राज्य में उन्हें व्रत अवश्य ही करना पड़ेगा।
सुझाव सुनने के बाद शोभन का मन बदल गया और उसने व्रत रखने का निर्णय लिया। अपनी भूख सहन करने की क्षमता को उसने भगवान पर छोड़ दिया।

परंतु जब उसने व्रत रखा तो वह भूख और प्यास से अत्यधिक पीड़ित होने लगा। जब सूर्य भगवान अस्त हुए तो सभी वैष्णव रात्रि को जागरण करने के लिए बहुत उत्साहित थे परंतु शोभन के लिए यह सबसे कठिन समय था। सुबह होते ही शोभन के प्राण निकल गए। राजा ने उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी पर व्रत रखने के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर स्वर्ण के खंभों पर निर्मित एवं मणियों से सुशोभित भवन में रहने लगा। वहां वह राजा की तरह रहता था।

एक समय मुचुकुंद के नगर का निवासी सोम शर्मा तीर्थयात्रा करता हुआ मंदराचल पर्वत पर पहुंचा। वहां उसने शोभन को देखा और उसे देखते ही पहचान गया कि वह राजा मुचुकुंद का जवांई है। शोभन ने भी उस ब्राह्मण को देखकर पहचान लिया। उसने ब्राह्मण को प्रणाम आदि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने बताया कि राजा मुचुकुंद, चंद्रभागा और शेष नगर कुशल से हैं। परंतु ब्राह्मण को इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि शोभन को ऐसा सुंदर नगर कैसे प्राप्त हुआ।

तब शोभन ने बताया कि रमा एकादशी का व्रत करने से उसे यह नगर प्राप्त हुआ। परंतु उस नगर में काफी अस्थिरता थी क्योंकि उसने रमा एकादशी के व्रत को श्रद्धा रहित होकर किया था। यदि वह ब्राह्मण राजा मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृतांत कहे तो उसका नगर स्थिर हो सकता है। ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से कहा कि उसने शोभन को प्रत्यक्ष देखा। वह अब देवताओं के नगर के समान राज्य में रहता है, परंतु वह अस्थिर है। उसे स्थिर किया जा सके ऐसा कोई उपाय चंद्रभागा उन्हें बताएं।

चंद्रभागा ने ब्राह्मण के सामने अपने पतिदेव के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की। उसने कहा कि वह अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना सकती है। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम में गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक किया जिससे कि उसका शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हो गई।

दिव्या गति को प्राप्त होकर चंद्रभागा अपने पति के नगर गई।अपनी पत्नी को देख शोभन भी बहुत प्रसन्न हुआ।
चंद्रभागा ने बताया कि वह 8 वर्ष की आयु से विधि पूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धा पूर्वक करते आ रही हैं और उन सभी से मिले हुए पुण्य को वह अपने पति को समर्पित करती हैं। जब चंद्रभागा ने शोभन को अपने पुण्य समर्पित किए तो उसका राज्य स्थिर एवं समस्त कर्मों से युक्त हो गया।

इस प्रकार चंद्रभागा दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

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