सुझाव देना, बहुत खतरनाक काम है – ज्योतिष।
*सुझाव देना, बहुत खतरनाक काम है – ज्योतिष।*
सुझाव देने का अर्थ है, दूसरे व्यक्ति को अपने से कम बुद्धिमान, या कम योग्य समझना। जो वास्तव में आपसे कम बुद्धि वाला हो, कम योग्य हो, और उसे सुझाव देने का आपका अधिकार भी हो, उसी को उचित समय पर सुझाव देवें; चाहे जब, चाहे जिसको सुझाव नहीं देना चाहिए।
आज के संसार में प्रायः सब लोग अपने आपको बुद्धिमान ही नहीं, बहुत बुद्धिमान समझते हैं। चाहे वे उतने बुद्धिमान हों या न हों, परंतु वे मानते तो यही हैं, कि “मैं बहुत बुद्धिमान हूं”।यह एक समस्या है।
कुछ लोग वास्तव में कुछ अधिक बुद्धिमान होते भी हैं, परंतु वे यह समझते हैं कि “मैं ही सबसे अधिक बुद्धिमान हूं।” यह दूसरी समस्या है।
वास्तविकता तो यह है कि, यहां संसार में एक से बढ़कर एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं। उनके कार्यक्षेत्र अलग-अलग हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग लोग वास्तव में उच्च स्तर के बुद्धिमान हैं। परंतु फिर भी यह कहना कठिन है, कि “मैं संसार का सबसे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति हूँ।” जो ऋषि लोग होते हैं, केवल उनको ही सर्वाधिक बुद्धिमान कहा जा सकता है। क्योंकि वे समाधि प्राप्त कर के, ईश्वर से वेदों को पढ़कर के बुद्धिमान बनते हैं। ऐसा आजकल तो कोई दिखाई नहीं देता।
फिर भी जो कुछ देखने में आता है, वह यही है, कि जो लोग अपने आप को बहुत बुद्धिमान मानते हैं। उनमें से बहुत से लोग सब क्षेत्रों में बुद्धिमान न होते हुए भी, वे अपने आप को सब क्षेत्रों में बुद्धिमान मानते हैं। यह उनकी बहुत बड़ी भूल और अभिमान की स्थिति है। ऐसे लोग इस भूल एवं अभिमान के नशे में रहने के कारण बहुत सारी गलतियां करते हैं, जो उनकी बुद्धिहीनता को सिद्ध करती हैं। अब वे इस अभिमान के नशे में रहते हुए, जब चाहे, जिसको चाहे, जो चाहे सुझाव देने लगते हैं।
*मनोविज्ञान यह कहता है, कि जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को सुझाव देता है, तो सुझाव देने वाला, स्वयं को उस क्षेत्र में अधिक बुद्धिमान या योग्य मानता है। और जिसको सुझाव दे रहा है, उसको अपने से कम बुद्धिमान या कम योग्य मानकर ही सुझाव देता है। इससे पता चलता है कि सुझाव देने वाला अपनी बुद्धि को दूसरे से अधिक मान रहा है।
अनेक स्थानों पर सुझाव देते समय, हमें अपने अधिकार का भी ध्यान रखना चाहिए। हो सकता है, हमारा वहाँ सुझाव देने का अधिकार न बनता हो। ऐसी स्थिति में, वहां सुझाव नहीं देना चाहिए। जैसे एक पुलिस का सामान्य सिपाही, डी एस पी साहब को अथवा पुलिस कमिश्नर साहब को ऑफिस के कार्य में सुझाव नहीं दे सकता। एक सामान्य सैनिक, लैफ्टिनेंट या ब्रिगेडियर साहब को ऑफिस के कार्य में सुझाव नहीं दे सकता। उस का अधिकार छोटा है। उसकी योग्यता कम है। अगर उसकी अधिक योग्यता होती, तो उसे भी ऊँचे पद पर बिठा दिया जाता।
इसी प्रकार से सबको विचार करना चाहिए, कि हमारी योग्यता कितनी है, हमारा अधिकार कितना है, जिसको हम सुझाव दे रहे हैं, वह हम से छोटा है, या बड़ा है। हो सकता है, उम्र में वह हमसे बड़ा हो, योग्यता में हमसे बड़ा हो, हम से अधिक बुद्धिमान हो, और हमें पता न हो, आदि आदि बहुत सारी बातें सोच समझकर सुझाव देना चाहिए। जब प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाए, कि दूसरा व्यक्ति हमसे कम योग्य है, उसकी बुद्धि हमसे कम है, उसका पद हमसे छोटा है, उसकी उम्र भी हम से कम है, हमारा उसे सुझाव देने का अधिकार भी है, तब किसी को सुझाव देना उचित है। अन्यथा तो यह सुझाव देना, बहुत खतरनाक काम है। और सुझाव देने से पहले एक बार पूछ लेना भी अच्छा रहता है, कि क्या आप मेरा सुझाव सुनना पसंद करेंगे? यदि दूसरा व्यक्ति सुझाव सुनने में रुचि दिखाए, तभी सुझाव देना चाहिए, अन्यथा नहीं।
मनोविज्ञान के अनुसार, जैसे ही आप दूसरे व्यक्ति को सुझाव देंगे, उसे अपमान महसूस होगा। वह सोचेगा, कि *”अच्छा! यह सुझाव देने वाला मुझे मूर्ख समझता है। स्वयं को बहुत बुद्धिमान समझता है! मुझे सुझाव देता है!” तो ऐसी स्थिति में व्यवहार बिगड़ सकता है।
सुझाव देने पर, यदि दूसरा व्यक्ति स्वयं को अपमानित महसूस करे, (जो कि प्रायः ऐसा होता है,) तो उसकी प्रतिक्रिया कभी कभी बहुत अधिक खतरनाक भी हो जाती है। इसलिए बहुत सोच समझकर ही किसी को सुझाव देना चाहिए।
उदाहरण – जैसे कि कोई कर्मचारी नया-नया ऑफिस में ड्यूटी पर आया। उसने ऑफिस की परंपराओं को ठीक से समझा नहीं, और स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझने के अभिमान के कारण, जूनियर होते हुए भी वह अपने सीनियर ऑफिस वालों को तरह तरह के सुझाव देने लगा, कि “यह काम ऐसे किया जाए, यह काम ऐसे किया जाए। इस वस्तु को यहां से उठाकर यहां रखा जाए इत्यादि।” तो ऑफिस के सीनियर लोग उससे नाराज होंगे, और उसके सुझाव को स्वीकार भी नहीं करेंगे। तब उसकी बहुत अधिक खतरनाक प्रतिक्रिया भी हो सकती है।
ऐसा ही एक और उदाहरण है। यदि कोई स्त्री, विवाह करके नई बहू बनकर, ससुराल में आई हो। और वह भी वहां की परंपराएं जाने बिना, वहां के बड़े लोगों = साथ ससुर आदि का सम्मान किए बिना, अपनी बुद्धि दिखाने लगे और ससुराल में आते ही तरह-तरह के सुझाव देने लगे, कि “यह काम ऐसे किया जाए, यह काम ऐसे किया जाए। इस वस्तु को यहां से उठाकर यहां रखा जाए इत्यादि।” तो उसके इस नये नये संबंध पर खतरा उत्पन्न हो सकता है। ससुराल के बड़े लोग उस से नाराज हो सकते हैं। उसकी खतरनाक प्रतिक्रिया भी कर सकते हैं। इसलिए वैसी स्थिति में नई बहू को 1 – 2 वर्ष तो कोई सुझाव नहीं देना चाहिए। बल्कि ससुराल की परंपराओं को समझने का प्रयास करना चाहिए। उनकी परंपराओं में ढलने की कोशिश करनी चाहिए।
(यदि कोई बाहर का व्यक्ति आपके घर पर आकर, आपके घरेलू कार्यों या परंपराओं में हस्तक्षेप करने लगे, तो आप को भी अच्छा नहीं लगेगा। इसी प्रकार से बहू भी बाहर से आई है।ससुराल, अभी बहू का अपना घर नहीं बना है। वह भी दूसरों के घर में रहने के लिए आई है। इस बात को ध्यान में रखकर, कम से कम 1 – 2 वर्ष तक, बहू को ससुराल में सब व्यवहार करने चाहिएँ।)
1 या 2 वर्ष बाद, जब वह उस घर की परंपराओं को समझ ले, स्वयं को उनमें ढाल ले, अपने उत्तम व्यवहार से ससुराल वालों का मन जीत ले, तब वह उसका अपना घर बनेगा, और तब उसे कोई सुझाव देने का अधिकार मिलेगा। तब तक उसे शांति से वहां की परिस्थितियों को समझने, और उनमें ढलने का प्रयास करना चाहिए।
ससुराल वाले उसकी बुद्धिमत्ता को 4 – 6 महीने तक देखकर यदि उससे सामने से बार-बार आग्रह करें, कि इस विषय में तुम अपना सुझाव रखो। और तब बहू को भी ऐसा लगे, कि सुझाव देना सुरक्षित है, इस में कोई हानि नहीं है। केवल इसी स्थिति में वह अपना सुझाव देवे। यदि उसे अपनी ससुराल में जीवन भर टिकना हो, तो बहुत सोच समझकर ही व्यवहार करना चाहिए।
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