OPINION: क्यों न राशन दुकानों पर उसी गांव के किसानों की उपज बांटी जाए | blog-on-pds-in-bihar-ration-distribution-system-farmers-facing-problem-amid-covid-19-lockdown | – News in Hindi

मगर सरकारी व्यवस्था की अपनी गति, अनाज की व्यवस्था और उसे सभी राशन डीलरों तक पहुंचाना, जिस पॉस मशीन (POS) के जरिये उंगलियों के निशान लेकर राशन का वितरण होता है, उसे अपडेट करना और फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया से दाल मंगवाना और उसकी मिलिंग करवाना आदि व्यवस्थाओं में उलझी यह व्यवस्था इस घोषणा के एक माह से अधिक वक्त के बीतने के बावजूद ठीक से लागू नहीं हो पाई है. राज्य के कई राशन दुकानों पर मुफ्त राशन तो बंटना शुरू हो गया है, मगर दाल कहीं नहीं मिल रही. राज्य के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने हाल ही में फिर से वादा किया है कि जल्द ही सभी लोगों को एक-एक किलो दाल मिलेगी. जहां मुफ्त वाला चावल बंट रहा है, उसकी गुणवत्ता को लेकर भी कई शिकायतें हैं. कई अत्यंत गरीबों को सिर्फ इसलिए राशन के अधिकार से वंचित किया जा रहा है, क्योंकि पॉस मशीन पर उसकी अंगुलियों के निशान नहीं बन पा रहे. ऐसे में राज्य के गरीबों की बड़ी आबादी आज भी राशन से वंचित है और दाने-दाने को मोहताज है.
चावल से गोदाम भरे, गेहूं की खरीद नहीं
दिलचस्प बात यह है कि ऐन इसी समय बिहार के तकरीबन हर पंचायत में यहां के किसानों के फसल की सरकारी खरीद के लिए अधिकृत संस्था पैक्स के गोदाम धान से भरे हैं. लॉकडाउन की वजह से इस धान को एफसीआई के गोदामों तक नहीं भेजा जा सका है, जहां उसका चावल तैयार करवाया जाता. चूंकि इस कोऑपरेटिव सोसाइटी के गोदाम पहले से भरे हैं, इसलिए किसानों के गेहूं की खरीद भी ठीक से नहीं हो पा रही. क्योंकि गेहूं खरीदकर रखा कहां जाए, इसकी कोई व्यवस्था नहीं है. इसी तरह बिहार के जिन इलाकों में दाल की खेती होती है, वहां भी किसानों को दाल बेचने में मुश्किल हो रही है. क्योंकि दाल खरीदने वाले व्यापारी आ नहीं रहे.
किसानों के सामने मजबूरी
कुल मिलाकर परिस्थितियां ऐसी हैं कि हर गांव में किसान इसलिए परेशान हैं कि उनकी उपज को अच्छे खरीदार नहीं मिल रहे. वह अपनी उपज को औने-पौने दाम में बेचने या असुरक्षित तरीके से स्टोर करने के लिए विवश है. इस बीच असमय बारिश उसकी तैयार फसल को नुकसान पहुंचा रही है. ठीक इसी वक्त हर गांव में गरीब लोग इसलिए परेशान हैं कि सरकार के ब्यूरोक्रेटिक सिस्टम की अपनी गति की वजह से उसे घोषणा के एक माह से अधिक वक्त बीतने के बावजूद मुफ्त राशन ठीक से नहीं मिल रहा है. सरकार रोज कह रही है कि वह राशन उपलब्ध कराने में जुटी है, जबकि राशन तो हर गांव में पहले से उपलब्ध है. बस सरकार को अपने सिस्टम में कुछ ऐसा बदलाव करना है, ताकि गांव के किसानों की उपज को गांव के जरूरतमंदों के बीच बंटवा दे. यह बहुत सरल सा काम है, जो सरकार के अपने नियम-कायदों की वजह से उलझा है. अगर ऐसा हो जाए तो किसानों को अपनी उपज की सही कीमत भी मिल जाएगी और जरूरतमंदों को समय से राशन भी. सरकार का परिवहन व्यय भी पूरी तरह बच जाएगा.
इस प्रसंग को इस तरह समझा जा सकता है. बिहार में सरकार हर साल 30 लाख मीट्रिक टन धान और 7 लाख मीट्रिक टन गेहूं की खरीद का लक्ष्य रखती है. हालांकि कई गड़बड़ियों की वजह से वह इस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाती. मगर इन आंकड़ों से जाहिर है कि राज्य में इतना गेहूं और धान तो पैदा होता ही है. बिहार में 1.68 करोड़ राशन कार्डधारी परिवार हैं और राज्य के 8.57 करोड़ लोगों को 5 किलो प्रति व्यक्ति के हिसाब से राशन मिलता है. इसे बढ़ाकर 8.71 करोड़ लोगों को इस दायरे में लाने की बात हो रही है. इस तरह देखें तो बिहार में सभी लाभुकों को राशन के लिए अमूमन 3 से 4 लाख मीट्रिक टन की जरूरत होती है. इसमें अगर मिड-डे मील और आंगनबाड़ी पर बंटने वाले पोषाहार को भी जोड़ दिया जाए, तो यह पांच लाख मीट्रिक टन तक पहुंचेगी.यानी इस अनाज की मात्रा राज्य में उत्पादित होने वाले अनाज का बमुश्किल 12 से 15 फीसदी के बीच होगी. इससे बहुत साफ है कि राज्य को अपने लोगों को राशन देने के लिए बाहर से राशन मंगाने की जरूरत नहीं है. मगर इस संकट की घड़ी में भी हम मुफ्त अनाज के लिए एफसीआई की बाट जोहते हैं और दाल गुजरात से भेजी जाती है.
पैक्स और राशन डीलर
हर पंचायत में किसानों की उपज खरीदने के लिए पैक्स नामक संस्था अलग से है और लोगों को राशन बांटने के लिए राशन डीलर अलग हैं. दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है. अगर दोनों को लिंक करा दिया जाए तो यह व्यवस्था बहुत सहज और आसान हो जाएगी. पैक्स सरकारी अनाज खरीदेंगे और हर साल बंटने वाले राशन के हिस्से को राशन डीलर को, स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों को उपलब्ध कराकर शेष एफसीआई को उपलब्ध करा देंगे. इससे परिवहन व्यय में भारी कमी आएगी और लोगों की सुविधा अचानक काफी बढ़ जाएगी. इस सहज प्रक्रिया में स्थानीय अधिकारियों का भी हस्तक्षेप काफी कम हो जाएगा. इस व्यवस्था से किसानों का भी भला होगा.
लंबे समय से कुपोषण को खत्म करने के अभियान के तहत बच्चों और महिलाओं को खाद्यान्न के साथ हरी सब्जियां और मडुआ जैसे मोटे अनाज उपलब्ध कराने की बात होती है. अगर यह व्यवस्था विकसित हो जाए तो गांव की सब्जियां गांव के कुपोषित बच्चों और एनीमिक महिलाओं के लिए मददगार हो सकती है. उन्हें हरी ताजा सब्जियां तत्काल मिल जायेगी. बस इसके लिए पैक्सों को आवश्यक सब्जियां खरीदने का अधिकार देना होगा.
ऐसी जानकारी है कि केरल समेत देश के कई राज्यों में ऐसी व्यवस्था काम कर रही है. विकेंद्रीकरण पर आधारित यह योजना अगर बिहार में लागू हो जाए तो राज्य की कुपोषित आबादी समेत किसानों की समस्या का भी बेहतर समाधान हो सकता है. क्या सरकार इस योजना को अपनाना चाहेगी?
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.
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