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यह समय ट्रेन से गाँव जाने का नहीं है…. | No this is not the time to send laborers home on the train | nation – News in Hindi

पहले दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर हजारों की तादाद में लोग, उसके करीब एक पखवाड़े बाद मुंबई (Mumbai) के बांद्रा में सैकड़ों की भीड़. ये सब घर जाना चाहते थे. जब मुश्किल आती है, तो सबसे पहले घर ही याद आता है. इसलिए अगर ये घर जाना चाहते थे, तो उनकी भावनाओं और मानसिकता को समझा जा सकता है. दिल्ली के आनंद विहार (Anand Vihar) पहुंचे लोगों को बस से जाना था. बांद्रा (Bandra) में मंगलवार को जमा हुई भीड़ ट्रेन की आस में आई थी. तमाम बातें हैं, जिनके मुताबिक अफवाह फैली कि स्पेशल ट्रेन चलने वाली है. सोशल मीडिया पर या चैनलों पर यह खबर चली, जिसके बाद लोग जमा हुए. लोगों के जमा होने का कारण क्या था, उस पर काफी बातें हुई हैं. लेकिन क्या इस वक्त कोई स्पेशल ट्रेन चलाया जाना सही होता? यह एक सवाल है, जिस पर चर्चा होना बहुत जरूरी है.

हम सब यह मानेंगे कि मुश्किल हालात में घर जाने की इच्छा होगी ही. उस पर अगर खाने-पीने को लेकर समस्या हो, तो यह इच्छा और ज्यादा बढ़ेगी. लेकिन स्पेशल ट्रेन का इंतजाम संभव है कि घर के आसपास पहुंचने की इच्छा को पूरा कर दे. लेकिन इसके लिए क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है, क्या इस बारे में सोचा है?

यह ऐसा वक्त है, जिसमें कोरोना वायरस से बचने के लिए सबसे प्रमुख उपाय सामाजिक  दूरी बनाकर रखना है, जिसको अंग्रेजी में सोशल डिस्टेंसिंग कहा जाता है. अब जरा सोचिए कि अगर कोई मुंबई से पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार जाना चाहे, तो उसे कितने घंटे ट्रेन में बिताने पड़ेंगे. मुंबई से पटना का सफर करीब 30 घंटे के आसपास है. यानी एक दिन से भी ज्यादा. जितने लोग घर जाना चाहते हैं, उनके लिए ट्रेन में सोशल डिस्टेंसिंग कतई आसान नहीं होगी. ..और अगर ट्रेन के एक डिब्बे में इन्हें ठूंसकर ले जाना चाहते हैं, तो समझा जा सकता है कि उन्हें बीमारी का कितना खतरा है.

अगर ट्रेन के एक डिब्बे में कोई एक इनफेक्टेड शख्स यात्रा कर रहा है, तो पूरे डिब्बे को खतरा है. मान लीजिए, एक डिब्बे में 60-70 लोग हैं. ऐसे में ये लोग जब अपने गांव पहुंचेंगे, तो वो खतरा कितने स्तर पर आगे बढ़ सकता है, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है.

अगर ऐसा होता है, तो लॉकडाउन की सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है. इनफेक्टेड लोग अपने परिवार को भी खतरे में डालेंगे. परिवार के सदस्य गांव में मौजूद बाकी लोगों के लिए खतरा बनेंगे. इसमें ध्यान रखने की बात यह भी है कि गांव में स्वास्थ्य सुविधाएं शहरों जैसी नहीं होतीं. ऐसे में अगर बीमारी फैली तो भगवान जाने, कहां जाकर रुकेगी. भारत में करीब 50 हजार वेंटिलेटर्स हैं, जो ज्यादातर बड़े शहरों में ही हैं.

कोरोना से मौत का खतरा सबसे ज्यादा बुजुर्गों को होता है. अगर बांद्रा जैसी भीड़ को किसी तरह उनके गांव पहुंचाया जाता है, तो ये लोग सबसे पहले अपने मां-बाप के लिए खतरा साबित होंगे. रेलवे के लिए कुछ स्पेशल ट्रेन चलाना कतई मुश्किल नहीं है. रेलवे को तो हर रोज ट्रेन न चलाने से भारी नुकसान हो रहा है. ऐसे में ट्रेन चलाना रेलवे की सेहत बनाए रखेगा, लेकिन देश की सेहत बिगड़ जाएगी. इसी तरह, महाराष्ट्र या किसी और राज्य में बेघर मजदूरों को खाना खिलाने की कोशिश कर रही राज्य सरकारों के लिए भी यह आसान है कि इन्हें विशेष ट्रेन में बिठाकर अपने राज्य से दूर भेज दें. लेकिन देश के लिए यह ठीक नहीं होगा.

जी हां, मजदूर मुश्किल में हैं. जी हां, वो घर जाना चाहते हैं. लेकिन उन्हें रोकना पड़ेगा. वो जहां हैं, उन्हें वहीं रहना पड़ेगा. राज्य सरकारों को उनका ध्यान रखना पड़ेगा. एनजीओ, बल्कि देश के हर सबल नागरिक को उनका ध्यान रखने की जरूरत है, ताकि वे भूखे पेट न सोएं. घर से कुछ दिन दूर रहें, ताकि वे भी स्वस्थ रहें, उनका परिवार भी… और देश भी.

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