*”संसार में यदि सबसे अधिक उलझा हुआ कोई विषय है, तो वह धर्म – ज्योतिष “*

धर्म के बिना ईश्वर नहीं पहचाना जा सकता, और ईश्वर के बिना धर्म नहीं पहचाना जा सकता। इन दोनों का साथ वैसा ही है जैसे सूर्य और प्रकाश का साथ।
जैसे सूर्य के बिना प्रकाश नहीं रह सकता और प्रकाश के बिना सूर्य नहीं कहलाता। इसी प्रकार से जब हम ईश्वर की बात करते हैं, तो धर्म साथ में जुड़ता ही है। अथवा जब हम धर्म की बात करते हैं, तो ईश्वर भी साथ में जुड़ता ही है। एक के बिना, दूसरे को समझना अधूरा है।”
जब हम धर्म की बात करते हैं, तो प्रश्न होता है, कि धर्म क्या है? उत्तर — “जो सबके कल्याण के लिए ईश्वर का बताया हुआ संविधान है। जिसका पालन प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए, वह ‘धर्म’ है।” ईश्वर ने जो संविधान बताया है, उसका नाम ‘चार वेद’ है। अर्थात ईश्वर के बताए संविधान – वेदों के अनुसार ‘आचरण’ करने का नाम ‘धर्म’ है। केवल वेदों की पुस्तक पढ़ लेना, सुन लेना या सुना देना मात्र, पूरा धर्म नहीं है।वह भी धर्म है, परन्तु वह अधूरा धर्म है।” धर्म की पूर्णता तो आचरण करने पर होती है। *”आजकल धर्म के नाम पर लगभग 2000 ‘संप्रदाय’ चल रहे हैं। इन सब का नाम ‘धर्म’ नहीं, बल्कि ‘संप्रदाय’ है।
धर्म और संप्रदाय में क्या अंतर है? उत्तर — *”जो ईश्वर का बताया हुआ संविधान है, वह ‘धर्म’ है। जिसका पालन प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। जैसे कि धर्म है, वेद।” “और ‘संप्रदाय’ उसे कहते हैं, जो संविधान मनुष्यों ने बनाया हो। उसमें कुछ बातें वेदों में से ले लीं, और कुछ वेदों के विरुद्ध अपनी जोड़ दीं। उस का नाम ‘संप्रदाय’ है। जैसे जैन बौद्ध ईसाई मुस्लिम आदि।”
अधर्म क्या है? उत्तर – “जो ईश्वर के बताए संविधान – वेदों के विरुद्ध आचरण है, उसे ‘अधर्म’ कहते हैं।” “इस प्रकार से धर्म एक ही है, 10 20 50 200 500 1000 2000 नहीं हैं। ये सब इतनी संख्या में तो संप्रदाय हैं।”
अब जब ईश्वर की बात करते हैं, तो प्रश्न होता है, कि ईश्वर क्या है? इस प्रश्न का उत्तर है, कि *”वेदों के रूप में संविधान बनाने और सृष्टि के आरंभ में बताने वाला चेतन पदार्थ ईश्वर है। जो सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान न्यायकारी आनंदस्वरूप आदि गुणों वाला है। वह सबके लिए कर्मों का संविधान बताता है, जिसका पालन हम सबको करना चाहिए।” “वेदों में जो अच्छे कार्य करने को लिखा है, उसके अनुसार आचरण करना ही ‘धर्म’ है। और वेदों में बताये निषिद्ध कर्मों का आचरण करना ही ‘अधर्म’ है।” इस प्रकार से धर्म अधर्म का ज्ञान कराने वाला ईश्वर है।”
सृष्टि के आरंभ से लेकर महाभारत काल तक, करोड़ों वर्षों तक वेदों को लोग पढ़ते रहे, पढ़ाते रहे, और उसके अनुसार सारा जीवन व्यवहार चलाते रहे। उस समय पर, शासन व्यवस्था भी वेदों के अनुकूल थी। “परंतु महाभारत के युद्ध के पश्चात उस वैदिक धर्म का लोप हो गया। क्योंकि वेदों को जानने वाले बड़े बड़े राजा और विद्वान लोग उस युद्ध में मारे गए। जब वेदों को पढ़ने पढ़ाने वाले लोग बहुत कम बचे, तो इतने कम लोगों से वह वैदिक धर्म सुरक्षित नहीं रह पाया। और जो बचे हुए दुष्ट एवं अज्ञानी लोग थे, उन्होंने अपने स्वार्थ और अज्ञानता के कारण तरह-तरह के संप्रदाय खड़े कर दिए। इसलिए ये इतने सारे संप्रदाय उत्पन्न हो गए। वैदिक शासन व्यवस्था न होने के कारण, आज भी नये नये संप्रदाय उत्पन्न होते रहते हैं।”
महाभारत युद्ध के पश्चात्, देश (स्थान) काल परिस्थिति के अनुसार कुछ अच्छे लोगों ने, कुछ अच्छी बातें जनता को बताई। उसी उसी देश काल या परिस्थिति में उन बातों का पालन करना उचित था। वे बातें सार्वभौमिक या सर्वकालिक नहीं थी। अब जब वे परिस्थितियां बदल गईं, तो उनकी आवश्यकता नहीं है। परंतु जनता इतनी प्रबुद्ध नहीं है। जनता ने उन आपातकालीन नियमों को सार्वकालिक नियम बना दिया। बस इसी का नाम संप्रदाय है।”और यही बातें आज समाज देश दुनिया के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही हैं।
“यदि लोग बुद्धिमत्ता से काम लेते, तो परिस्थितियां बदल जाने पर, या उनसे भिन्न स्थानों पर उन तात्कालिक नियमों को छोड़कर सार्वकालिक और सार्वभौमिक नियमों को अपनाते, तो बहुत अधिक सुखी हो सकते थे।” वे सारे सार्वकालिक और सार्वभौमिक नियम, ही वेदों में लिखे हैं, जो पहले भी उपयोगी थे, आज भी उपयोगी हैं, और प्रलय काल आने तक भविष्य में भी उतने ही उपयोगी रहेंगे। इसलिए “जो बुद्धिमत्तापूर्ण है, तीनों कालों में मानने योग्य है, आचरण करने योग्य संविधान है, उसी का नाम ‘धर्म’ है, वह वेदों में बताया है। जैसे यज्ञ करना स्वाध्याय करना संध्या उपासना करना सत्य बोलना न्याय और ईमानदारी से व्यवहार करना मन इंद्रियों पर संयम रखना सदा सबका भला चाहना यथाशक्ति दूसरों का भला करना इत्यादि।”ये सब वेदों में बताए गए शुद्ध कर्म हैं। इनका आचरण करना ही धर्म है।
“और जो बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है, जो हानिकारक एवं दुखदायक है। अपनों और दूसरों का सबका दुख बढ़ाने वाला है, उसका आचरण करना ही अधर्म है। जैसे झूठ बोलना चोरी करना रिश्वत लेना रिश्वत देना दूसरों को व्यर्थ में ही परेशान करना अन्याय करना चोरी डकैती लूटमार करना इत्यादि।”
—- ज्योतिष कुमार