ज्योतिष का धर्म से संबंध
ज्योति का अर्थ होता है प्रकाश और ज्योतिष का अर्थ होता है ज्योति पिंडों का अध्ययन। ज्योतिषशास्त्र का अर्थ प्रकाश वाले पिंडों की गतिविधियों को बताने वाला शास्त्र।
हमारे वेदों में भी ज्योतिष विद्या का जिक्र पाया गया है। और जब दुनिया में कोई भी धर्म नहीं था उस काल में भी लोग ग्रह नक्षत्र सितारों की पूजा किया करते थे जैसा कि हमने मिस्र पेरु अमेरिका की पुरानी सभ्यता में ग्रह नक्षत्र तारों की पूजा करते हुए पत्थरों पर चित्र भी पाए हैं। ज्योतिष के दो अंग हैं एक है गणित और दूसरा है फलित जो पहला ज्योतिष का अंग है। गणित यह हर धर्म के अनुसार लागू है जैसे कि सुबह का पूजा पाठ कब किया जाएगा संध्या का कब किया जाएगा। जो सभी धर्मों में एक तय वक्त किए गए हैं। ( हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई इन सभी के धार्मिक त्योहार एक कालगणना से ही निर्धारित किए जाते हैं कि कब सरस्वती पूजा होगी कब रमजान होगा दीपावली होगी इत्यादि)।
दूसरा है फलित जोकि ज्योतिष शास्त्र जानने वाले लोग ग्रह नक्षत्र सितारों की मदद से भविष्य वर्तमान और भूतकाल की गणना भविष्यवाणी के लिए करते हैं।
ज्योतिष और नक्षत्र
भारतीय ज्योतिष ग्रहनक्षत्रों की गणना की वह पद्धति है जिसका भारत में विकास हुआ है। आजकल भी भारत में इसी पद्धति से पंचांग बनते हैं, जिनके आधार पर देश भर में धार्मिक कृत्य तथा पर्व मनाए जाते हैं। वर्तमान काल में अधिकांश पंचांग सूर्यसिद्धांत, मकरंद सारणियों तथा ग्रहलाघव की विधि से प्रस्तुत किए जाते हैं। कुछ ऐसे भी पंचांग बनते हैं जिन्हें नॉटिकल अल्मनाक के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु इन्हें प्रायः भारतीय निर्णय पद्धति के अनुकूल बना दिया जाता है।
प्राचीन भारत में ज्योतिष का अर्थ ग्रहों और नक्षत्रों की चाल का अध्ययन करने के लिए था, यानि ब्रह्माण्ड के बारे में अध्ययन। कालान्तर में फलित ज्योतिष के समावेश के चलते ज्योतिष शब्द के मायने बदल गए और अब इसे लोगों का भाग्य देखने वाली विद्या समझा जाता है।
प्राचीनकाल का धर्म – ज्योतिष
ज्योतिष ही प्राचीनकाल का धर्म हुआ करता था। मानव ने ग्रहों और नक्षत्रों की शक्तियों को पहचाना और उनकी प्रार्थना एवं पूजा करना शुरू किया। बाद में धीरे-धीरे प्राचीन मानव ने ग्रहों आदि के धरती पर प्रभाव और उसके परिणाम को भी समझना शुरू किया और अपने जीवन को उनके अनुसार प्राकृतिक स्वरूप में ढालने के लिए कुछ नियम बनाना शुरू किए, जैसे प्रारंभ में किस मौसम में कौन सा भोजन खाना, किस ओर नहीं जाना, कब एक स्थान से दूसरे स्थान पर निष्क्रमण करना, कब समुद्र के किनारे जाना आदि।
जैसे जैसे समझ और बढ़ी तो कैलेंडर विकसित किया गया। दिए हुए दिन, समय और स्थान के अनुसार ग्रहों की स्थिति की जानकारी और आकाशीय तथा पृथ्वी की घटनाओं के बीच संबंध को उसमें दर्शाया जाने लगा और फिर उसमें से कुछ महत्वपूर्ण दिनों की पहचान करके उस दिनों में उत्सव और व्रतों को किए जाने के प्रावधान रखा गया।